
रवि के जीवन के आख़िरी पल आख़िर में आ ही गए। सूरज को अब चले जाना ही होगा, शाम जो उतरने लगी। उसके पीछे रात के शृंगार में राग मारवाहके आलाप शुरु हो गए। ज़िदगी के अंतिम बेला में एक गहरी व्याकुलता ने घेर ली है उसे – वह अब तक क्यों नहीं आई। दूर पश्चिम दिशा में डूबते हुए दिवाकर कुछ ज्यादा ही रक्तिम है आज – मानो, आज की शाम को सारी कायनात लहूलुहान हो गई हो। लेकीन वह अब तक क्यों नहीं आई। वक्त रुक नहीं सकता, उसके पास अवकाश कहाँ! एक लंबे इंतज़ार में ज़िदगी बीत गई, लेकीन वह नहीं आई।
जो फूल शैशव के आँगन में खिले थे, यौवन के प्रारंभ में ही झड़ गए – लेकीन आज बुढ़ापे के अंतिम पड़ाव पर भी उसकी ख़ुशबू अँगड़ाई ले रही है। आएगी वह, आना ही होगा उसे।
कुदरत करवट ले रही है – धूँधलाती हुई शाम पर शब का साया मँडराने लगा। नील गगन ने काली चादर ओढ़कर तारों को पनाह दे दिया। देखते ही देखते काले आसमान पर माहताब की रिमझिमाती हुई मुस्कुराहट में लाखों तारें सरीक हो गए। बस इसी वक्त के मुंतज़िर थे रवि – अचानक रवि के हृदय में किसी की मुलायम पद-ध्वनि – अंतिम मिलन के लिए उसे पाने की ख़्वाहिश अब एहसास के रोम-रोम में प्रवाहित होने लगी – आएगी वह, ज़रुर आएगी, आना ही होगा उसे – राहनुमा राह दिखा के ले जाएगी – और वह आई।
चाँद से निकली परी, पाल वाली नाव पर सवार होकर धरती पर पैर रखी – सीधे चल कर रवि के पास जाकर बैठी, बिलकुल उसके करीब। सिर पर लाल गुलाब की माला, गले में बसंत बहार की हार – नयनों में अंजन, चेहरे पर दमकती हुई मुसकान। बड़े प्यार से निहारा युवती ने। बड़े मसरुर से दोनों एक दूसरे को देखा – पहचाना – शुष्क चाह के फूल फिर से ख़ुशबू फैलाने लगे। छलछलाती हुई आँखें – सरोवर के जल पर चाँद की झलक। बहती हवाओं में पारिजात का सुबास। बुलबुल अपने साथी को बुला रही है। रवि ने युवती से पूछा :-
रवि : पच्चीसवाँ यौवन नही बीत पाई, इतनी भी क्या परेशानिया थी कि ज़िदगी को अपने
रंग दिखाने से पहले रंगसाज को ही ख़त्म कर देना पड़ा। अच्छा, तुम वही हो न,
जिसके चलते मैंने दुख के दरिया में जीवन की कश्ती बहा लिए।
युवती : बेशक, ठीक पहचाना है तुमने मुझे – हाँ मैं वही हूँ, तुम्हारे पच्चीस साल की उम्र में
मिलनेवाली पहली चोट।
रवि : हाँ, पहला शोक, ग़म के समुंदर पर डूबते हुए सूरज की आख़िरी किरण की तरह।
युवती : तुम बदले नहीं। जीवन के शेष मुहूर्त में भी वही छटपटाहट – उछलते हुए पहाड़ी
झरने जैसी – पता ही नहीं कहाँ कूद रहे हैं।
रवि : पहली बार जब मिले थे, हमने देखा था श्रावण के मेघ की तरह शक्ल तुम्हारी,
लेकीन आज सोने की प्रतिमा जैसी – मानो कि बरसात के मेघ ने शरत के शिउली
फूलों की तरह मुस्कुराना सीख लिया हो – पच्चीसवाँ यौवन मुसलसल अभी भी ताज़ा है, इतने लंबे अरसे बीत जाने के बाद भी।
युवती : और यह देखो, बसंत बहार की माला, एक भी पपड़ी नहीं टूटी। अब यह माला मैं
तुम्हारे गले में डाल रहीं हूँ।
रवि : लेकीन मैं तो बुढ़ा हो गया हूँ, चेहरे पर भी शिकन आ गई है।
युवती : तुमने कहा था, तुम्हे सांत्वना नहीं संताप चाहिए।
रवि : हाँ याद है। तो अब ले चलो मुझे, मेरे माझी, जीवनके इस पार से भवसागर के उस
पार, वहाँ जहाँ शांति विराज रही हो।
…कोई बेचैनी नहीं – न सुख हो, न दुख हो – बस शांति, अनंत शांति… चारों तरफ़
से रोने की आवाज़ ! क्यों रो रहे हो भाई – जाने दो उसे, जाने दो,सृष्टि के अनंत
शून्य में।